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कांवड़ की पवित्रता पर सवाल,, क्या आस्था के प्रतीक को भी ‘पहचान’ से जोड़ा जाएगा?,, स्वामी यशवीर महाराज के बयान से शुरू हुई नई बहस, विरोध और समर्थन आमने-सामने

इन्तजार रजा हरिद्वार – कांवड़ की पवित्रता पर सवाल,,
क्या आस्था के प्रतीक को भी ‘पहचान’ से जोड़ा जाएगा?,,
स्वामी यशवीर महाराज के बयान से शुरू हुई नई बहस, विरोध और समर्थन आमने-सामने

हरिद्वार, उत्तराखंड।
सावन का महीना, शिवभक्तों का जनसैलाब और हरिद्वार से शिवालयों तक गूंजते जयकारों के बीच अब एक ऐसी बहस ने जन्म ले लिया है, जिसने आस्था की बुनियाद को ही सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है। कांवड़ यात्रा जो अब तक श्रद्धा, समर्पण और संयम की मिसाल मानी जाती रही है, अब उस यात्रा का प्रतीक – कांवड़ – ही संदेह और विवाद का विषय बन गया है।

हरिद्वार में ‘पहचान अभियान’ के जरिए सुर्खियों में आए स्वामी यशवीर महाराज ने अब एक और बड़ा मुद्दा उठाते हुए कांवड़ निर्माण पर सवाल खड़े किए हैं। उन्होंने पूछा है कि “क्या जो कांवड़ हम भगवान शिव तक पहुंचाते हैं, वह शुद्ध और पवित्र हाथों से बन रही है?” इस सवाल ने धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक गलियारों में चर्चा छेड़ दी है।

पहचान अभियान से कांवड़ निर्माण तक पहुंची बात

स्वामी यशवीर महाराज पिछले कुछ दिनों से हरिद्वार में ‘पहचान अभियान’ के तहत होटल-ढाबों पर काम कर रहे कर्मचारियों की धार्मिक पहचान उजागर करने की मुहिम चला रहे हैं। उनका दावा है कि कई होटल-ढाबों में “असली नाम छिपाकर” काम करने वाले लोग न केवल “धार्मिक अपवित्रता” फैला रहे हैं, बल्कि हिन्दू यात्रियों की आस्था के साथ भी खिलवाड़ कर रहे हैं।

अब इसी अभियान को एक कदम आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कांवड़ निर्माण की प्रक्रिया और उसमें लगे कारीगरों की धार्मिक पहचान पर भी सवाल उठाया है। उनका तर्क है कि —

“जो लोग मांसाहार करते हैं, गौहत्या में शामिल रहे हैं या हिन्दू भावनाओं का सम्मान नहीं करते, वे कांवड़ जैसी पवित्र वस्तु को कैसे बना सकते हैं? यह केवल एक वस्तु नहीं, बल्कि श्रद्धा का प्रतीक है।”

 स्वामी यशवीर महाराज

“हम चाहते हैं कि कांवड़ बनाने का काम उन्हीं हाथों में हो जो पवित्र हों, जिन्होंने शिव की भक्ति की हो, न कि उन लोगों के जो थूक जिहाद या मूत्र जिहाद की मानसिकता रखते हैं। हमारी आस्था के साथ खिलवाड़ बर्दाश्त नहीं होगा। प्रशासन को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि शिव के लिए बनने वाली कांवड़ किसी भी साजिश या अपवित्र मानसिकता की उपज न हो।”

समर्थन और विरोध की राजनीति शुरू

स्वामी यशवीर महाराज के इस बयान के बाद समाज के भीतर विरोध और समर्थन की दो धाराएं चल पड़ी हैं। कुछ हिंदू संगठनों ने इस बात का समर्थन करते हुए मांग की है कि – कांवड़ निर्माण से जुड़े कारीगरों की धार्मिक पहचान सार्वजनिक की जाए और शुद्धता सुनिश्चित करने के लिए प्रमाणिकता जांची जाए।

वहीं दूसरी ओर, कई सामाजिक संगठनों और विपक्षी दलों ने इस बयान को “धार्मिक ध्रुवीकरण और आस्था के नाम पर नफरत फैलाने की कोशिश” बताया है। कुछ संगठनों का कहना है कि “कांवड़ भक्ति का प्रतीक है, न कि किसी विशेष धर्म की बपौती।”

एक सामाजिक कार्यकर्ता का कहना है –

“जो कांवड़िया पूरे मन से भक्ति करता है, वह यह नहीं देखता कि कांवड़ किसने बनाई है, बल्कि उसके अंदर समर्पण होता है। निर्माणकर्ता का धर्म नहीं, उसका कर्म महत्वपूर्ण है।”

प्रशासन और जनता की राय

इस मुद्दे पर प्रशासनिक स्तर पर अभी तक कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया नहीं आई है। हालांकि पुलिस और स्थानीय प्रशासन का ध्यान कांवड़ यात्रा को शांतिपूर्वक सम्पन्न कराने पर केंद्रित है। लेकिन जनता के बीच यह बहस जरूर गहराती जा रही है।

कई स्थानीय लोग मानते हैं कि यह बहस अनावश्यक है और इससे केवल साम्प्रदायिक तनाव बढ़ सकता है। वहीं कुछ लोगों का मानना है कि धार्मिक प्रतीकों की पवित्रता बनाए रखना भी जरूरी है, और ऐसे मामलों की जांच होनी चाहिए।

क्या वाकई आस्था की शुद्धता पहचान से तय होगी?

अब बड़ा सवाल यही है कि – क्या श्रद्धा से जुड़ी हर वस्तु की पवित्रता उसके निर्माणकर्ता की धार्मिक पहचान से तय की जाएगी? क्या यह सोच सामाजिक समरसता को खंडित नहीं करेगी?
कांवड़ कोई सामान नहीं, बल्कि श्रद्धा और तपस्या का प्रतीक है। हजारों किलोमीटर से पैदल यात्रा करने वाले शिवभक्त के लिए सबसे बड़ा महत्व उस भक्ति का है, जो वह जल लेकर लाता है। ऐसे में कांवड़ के निर्माणकर्ता का धर्म नहीं, उसका भाव और श्रम महत्वपूर्ण है।

हर साल सावन का महीना भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल बनता रहा है, जहां हर धर्म और वर्ग के लोग कांवड़ यात्रियों की सेवा में लगे रहते हैं। लेकिन अगर कांवड़ जैसे प्रतीकों को भी धार्मिक पहचान के चश्मे से देखा जाने लगे, तो यह सवाल उठाना जरूरी हो जाता है कि क्या आस्था को सीमाओं में बांधा जा सकता है?

आस्था का सम्मान सबके लिए हो, यही हमारी परंपरा रही है। बहस का स्वरूप चाहे जो हो, लेकिन उसका अंत सामाजिक एकता और आपसी सम्मान के रास्ते ही होना चाहिए – यही सच्ची श्रद्धा और भक्ति का मार्ग है।

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