अवैध मेले: सरकारी जमीन पर मेला आयोजन के नाम पर लाखों का खेल,, लेकिन अब जरूरी है सख्त कार्यवाही,, सरकारी जमीन पर कब्जा,, फिर धार्मिक आयोजन की आड़ में चंदा वसूली और राजनीतिक संरक्षण — एक गंभीर साजिश का हिस्सा!,, भविष्य की चुनौती बन सकता है यह चलन,, सरकार और प्रशासन को अभी से होना होगा सतर्क

इन्तजार रजा हरिद्वार- अवैध मेले: सरकारी जमीन पर मेला आयोजन के नाम पर लाखों का खेल,, लेकिन अब जरूरी है सख्त कार्यवाही,,
सरकारी जमीन पर कब्जा,, फिर धार्मिक आयोजन की आड़ में चंदा वसूली और राजनीतिक संरक्षण — एक गंभीर साजिश का हिस्सा!,,
भविष्य की चुनौती बन सकता है यह चलन,, सरकार और प्रशासन को अभी से होना होगा सतर्क
हरिद्वार/उत्तराखंड।
सरकारी जमीनों पर अवैध रूप से बने मजारों की बढ़ती संख्या अब केवल धार्मिक या आस्था का विषय नहीं रह गई है, बल्कि यह एक बड़ा आर्थिक और प्रशासनिक खेल बन चुका है। इन मजारों पर अवैध रूप से लगने वाले मेलों और आयोजनों के ज़रिए लाखों रुपये की उगाही होती है, जिसमें स्थानीय दबंगों, राजनीतिक संरक्षण प्राप्त व्यक्तियों और कुछ स्वयंभू धार्मिक ठेकेदारों की मिलीभगत सामने आ रही है।
हालांकि वर्तमान में किसी ऐसे अवैध मेले का संचालन नहीं हो रहा है, लेकिन विगत वर्षों के अनुभवों और देखी गई गतिविधियों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भविष्य में यह एक गंभीर समस्या का रूप ले सकती है।
सरकारी जमीन पर अवैध मजारें — कैसे होता है खेल?
अनेक मामलों में देखा गया है कि किसी सुनसान या सार्वजनिक सरकारी भूमि पर पहले एक छोटी सी कब्र या चबूतरा बनाया जाता है, फिर धीरे-धीरे उसे ‘मजार’ का नाम दे दिया जाता है। धार्मिक आस्था का सहारा लेकर स्थानीय लोगों को जोड़ने की कोशिश होती है और कुछ वर्षों में वहां स्थायी निर्माण हो जाता है।
इसके बाद उस जगह को ‘पवित्र स्थल’ घोषित कर वहां पर मेला, उर्स या अन्य आयोजन करने की परंपरा शुरू की जाती है। ऐसे आयोजनों में स्थानीय दुकानदारों से जबरन स्टॉल शुल्क वसूला जाता है, वाहनों की पार्किंग से पैसे लिए जाते हैं और चंदे के नाम पर लाखों की रकम इकट्ठा की जाती है — जो कि पूरी तरह से अवैध है।
न अनुमति, न रजिस्ट्रेशन — सब कुछ अनधिकृत
इन आयोजनों के लिए न तो कोई प्रशासनिक अनुमति ली जाती है, न ही मेला समिति का कोई वैध पंजीकरण होता है। पुलिस, नगर निगम और जिला प्रशासन को नजरअंदाज कर खुलेआम मेले का संचालन किया जाता है। यह न सिर्फ कानून व्यवस्था के लिए खतरा है बल्कि धार्मिक माहौल को भी दूषित करने का जरिया बनता है।पिछले कुछ वर्षों में कुछ स्थानों पर इन अवैध मेलों में चोरी, झगड़े, ट्रैफिक जाम और यहां तक कि सांप्रदायिक तनाव जैसी घटनाएं भी सामने आई हैं।
स्थानीय प्रशासन की चुप्पी — संरक्षण या भय?
सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इन मामलों में स्थानीय प्रशासन की चुप्पी कई सवाल खड़े करती है। क्या ये चुप्पी किसी दबाव का परिणाम है या कहीं न कहीं सत्ता और प्रभावशाली लोगों का संरक्षण प्राप्त हो रहा है?
यदि किसी ग्रामीण क्षेत्र में एक छोटे किसान की झोपड़ी सरकारी ज़मीन पर बनी हो, तो उसे तोड़ने में देर नहीं लगती, लेकिन जब बात मजार की आती है, तो प्रशासन चुप्पी साध लेता है।
राजनीतिक हस्तक्षेप बना रहा है अवैध को वैध!
चुनावों के दौरान यह देखा गया है कि कुछ नेता इन मजारों पर जाकर चादरपोशी कर फोटो खिंचवाते हैं और वहां की समिति या संरक्षक मंडली को चुपचाप सहयोग देते हैं। यही लोग बाद में इन मेलों के मुख्य आयोजक या संरक्षक बन जाते हैं।
इस तरह धर्म के नाम पर सरकार और जनता — दोनों को भ्रम में डालकर लाखों का खेल चलाया जाता है।
समय रहते चेतने की जरूरत
फिलहाल यदि ऐसा कोई मेला संचालित नहीं हो रहा है, तो यह राहत की बात है। लेकिन सरकार और जिला प्रशासन को अभी से इस पर एक ठोस रणनीति बनानी चाहिए।
- सरकारी जमीनों की डिजिटल मैपिंग और नियमित निगरानी होनी चाहिए।
- जहां-जहां अवैध मजारें बनी हैं, उनकी वैधता की जांच कर कार्रवाई की जाए।
- धार्मिक आयोजनों के लिए पूर्व अनुमति की सख्त व्यवस्था लागू की जाए।
- धार्मिक स्थल के नाम पर आर्थिक गतिविधियों पर निगरानी रखी जाए।
- स्थानीय लोगों को जागरूक किया जाए कि आस्था के नाम पर अवैध कब्जों का समर्थन न करें।
धार्मिक आस्था का सम्मान अपनी जगह है, लेकिन उसका सहारा लेकर यदि कुछ लोग सरकारी जमीनों पर कब्जा कर अवैध मेले आयोजित कर रहे हैं, तो यह समाज के लिए भी खतरा है और शासन की प्रतिष्ठा के लिए भी। यह कोई संप्रदाय विशेष का मुद्दा नहीं, बल्कि एक संगठित तरीका है कानून को ठेंगा दिखाने का।
समय रहते अगर सरकार और प्रशासन ने सख्ती नहीं दिखाई, तो भविष्य में यह प्रवृत्ति और भी अधिक जटिल रूप ले सकती है।
अब वक्त है कि सरकार केवल अवैध मजारों को चिन्हित ही न करे, बल्कि उनके ज़रिए होने वाले आर्थिक और सामाजिक खेल पर भी निर्णायक कार्रवाई करे।
रिपोर्ट: Daily Live Uttarakhand
: इंतज़ार रज़ा,