सरकारी अस्पताल में मानवता हुई थी शर्मसार — गर्भवती महिला को भर्ती से किया था इंकार, फर्श पर बच्चे को दिया था जन्म,, हरिद्वार के सरकारी अस्पताल की लापरवाही ने फिर उजागर की स्वास्थ्य व्यवस्थाओ की सच्चाई,, राज्य मानवाधिकार आयोग में भदौरिया अधिवक्ताओं ने दाखिल की शिकायत याचिका, डॉक्टर पर हत्या के प्रयास का मुकदमा दर्ज कर पीड़िता को 50 लाख रुपये का मुआवजा देने की मांग
उत्तराखण्ड के हरिद्वार जनपद से एक बार फिर सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की अमानवीय तस्वीर सामने आई है। एक गर्भवती महिला को प्रसव पीड़ा के दौरान अस्पताल से भर्ती करने से मना कर दिया गया, जिसके बाद उसने फर्श पर ही बच्चे को जन्म दिया। इस पूरे प्रकरण को लेकर अधिवक्ता अरूण कुमार भदौरिया, सुमेधा भदौरिया, कमल भदौरिया और चेतन भदौरिया ने राज्य मानवाधिकार आयोग, देहरादून में गंभीर शिकायत दर्ज कराई है। शिकायत में उन्होंने इसे “मानव अधिकारों का घोर उल्लंघन” बताते हुए दोषी चिकित्सक के खिलाफ हत्या के प्रयास का मुकदमा दर्ज करने और पीड़िता को 50 लाख रुपये का मुआवजा देने की मांग की है।

इन्तजार रजा हरिद्वार- सरकारी अस्पताल में मानवता हुई थी शर्मसार — गर्भवती महिला को भर्ती से किया था इंकार, फर्श पर बच्चे को दिया था जन्म,,
हरिद्वार के सरकारी अस्पताल की लापरवाही ने फिर उजागर की स्वास्थ्य व्यवस्थाओ की सच्चाई,,
राज्य मानवाधिकार आयोग में भदौरिया अधिवक्ताओं ने दाखिल की शिकायत याचिका, डॉक्टर पर हत्या के प्रयास का मुकदमा दर्ज कर पीड़िता को 50 लाख रुपये का मुआवजा देने की मांग

घटना की पृष्ठभूमि: डॉक्टर ने भर्ती से किया इनकार, महिला ने फर्श पर दिया था बच्चे को जन्म

भदौरिया अधिवक्ताओं की शिकायत में बताया गया कि प्रसव पीड़ा से तड़पती महिला जमीन पर बैठी रही, लेकिन किसी भी नर्स या स्टाफ ने उसकी कोई मदद नहीं की। इतना ही नहीं, डॉक्टर ने महिला के साथ आई आशा कार्यकर्ता सविता से कहा कि “तेरा मरीज है, तू ही साफ कर”, जब वह फर्श पर खून से लथपथ पड़ी थी। इस बीच महिला की थैली फट गई और आधा बच्चा पेट के अंदर और आधा बाहर निकल आया। स्थिति इतनी विकट हो गई कि आशा कार्यकर्ता ने इस पूरे घटनाक्रम का वीडियो बनाना शुरू किया, तो अस्पताल स्टाफ ने उसका मोबाइल छीनने की कोशिश की। यह दृश्य सरकारी अस्पताल में मानवता की गिरती परतों को उजागर करने के लिए पर्याप्त है।
“मानवता शर्मसार, राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह”
शिकायतकर्ताओं ने अपनी याचिका में लिखा है कि —
“यह घटना केवल एक महिला की नहीं, बल्कि राज्य की समूची स्वास्थ्य व्यवस्था की विफलता का उदाहरण है। सरकारी डॉक्टरों में जवाबदेही नाम की चीज़ नहीं बची। गरीब और मजदूर वर्ग की महिलाओं के साथ ऐसा व्यवहार उत्तराखण्ड के मानव अधिकारों का खुला उल्लंघन है।”
प्रार्थी अधिवक्ताओं ने कहा कि इस प्रकार की घटनाएँ बार-बार दोहराई जा रही हैं। हाल ही में जनपद बागेश्वर में भी एक नवजात शिशु की मौत सरकारी अस्पताल की लापरवाही से हुई थी, जिसके बाद भी राज्य सरकार ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया। उनका कहना है कि ऐसे मामलों से राज्य की गरीब महिलाओं में सरकारी स्वास्थ्य संस्थाओं के प्रति भरोसा पूरी तरह से टूट गया है, और अब वे प्राइवेट अस्पतालों की ओर रुख करने को मजबूर हैं — जहाँ महंगे इलाज की वजह से उन्हें कर्ज़ तक लेना पड़ रहा है।
याचिका में रखी गई प्रमुख मांगें
अधिवक्ताओं ने राज्य मानवाधिकार आयोग से कई ठोस कार्रवाई की मांग की है। याचिका में मुख्य रूप से निम्न बिंदु शामिल हैं—
- पीड़ित महिला पुतुल पत्नी कुंदन को 50 लाख रुपये का मुआवजा सरकार की ओर से दिया जाए, क्योंकि यह घटना मानव अधिकारों के उल्लंघन का गंभीर मामला है।
- डॉ. सुमन के खिलाफ हत्या के प्रयास (Section 307 IPC) के तहत अभियोग दर्ज कराया जाए।
- राज्य के सभी सरकारी अस्पतालों की गैलरियों में सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएं ताकि भविष्य में किसी घटना की सच्चाई छिपाई न जा सके।
- डॉक्टरों के ओवरकोट पर नेमप्लेट और पदनाम अनिवार्य रूप से प्रदर्शित किए जाएं, ताकि मरीज को यह ज्ञात हो कि इलाज कौन कर रहा है।
- सभी अस्पतालों में बायोमेट्रिक उपस्थिति प्रणाली लागू की जाए, जिससे स्टाफ और डॉक्टरों की ड्यूटी का सटीक रिकॉर्ड रखा जा सके।
- राज्य के प्रत्येक मुख्य चिकित्साधिकारीयों (CMO) को निर्देशित किया जाए कि डॉक्टर मरीजों को बाहर की दवाइयां लिखने के बजाय सरकारी दवाइयां ही उपलब्ध कराएं।
सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं पर गहराया अविश्वास
राज्य के कई हिस्सों में सरकारी अस्पतालों की स्थिति दिनों-दिन खराब होती जा रही है। डॉक्टरों की अनुपलब्धता, उपकरणों की कमी, और मरीजों के प्रति असंवेदनशील रवैया आम बात बन चुकी है।
हरिद्वार जैसी धार्मिक नगरी में जहां लाखों की आबादी सरकारी स्वास्थ्य संस्थानों पर निर्भर है, वहाँ इस तरह की घटनाएं न केवल प्रशासन की लापरवाही बल्कि शासन की नीतिगत असफलता को भी उजागर करती हैं।स्वास्थ्य विभाग के उच्चाधिकारियों की चुप्पी ने सवाल और गहरे कर दिए हैं कि आखिर गरीबों और महिलाओं के लिए “मुफ्त इलाज” की सरकारी घोषणाओं का जमीनी सच क्या है?
मानवाधिकार आयोग की भूमिका और संभावित कार्रवाई
राज्य मानवाधिकार आयोग के समक्ष यह मामला आने के बाद अब उम्मीद है कि इस अमानवीय घटना की जांच कर दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। आयोग के पास यह अधिकार है कि वह राज्य सरकार को मुआवजा देने, विभागीय जांच कराने और अस्पतालों की जवाबदेही तय करने के निर्देश दे सके। यदि आयोग इस मामले में ठोस कदम उठाता है, तो यह पूरे राज्य में सरकारी अस्पतालों में मानवता और जवाबदेही स्थापित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा।
हरिद्वार की यह घटना उत्तराखण्ड की स्वास्थ्य सेवाओं के चेहरे से नकाब हटाने का काम करती है। जिस राज्य में “स्वस्थ माँ, स्वस्थ समाज” का नारा दिया जाता है, वहाँ गर्भवती महिलाओं को फर्श पर बच्चे जनने को मजबूर होना पड़ रहा है — यह केवल एक खबर नहीं, बल्कि एक कठोर सामाजिक सच्चाई है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राज्य सरकार और स्वास्थ्य विभाग इस घटना के बाद क्या ठोस कार्रवाई करते हैं — या फिर यह मामला भी फाइलों में दबकर रह जाएगा।