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पहाड़ से पलायन नहीं, पुनर्वास चाहिए,, एडवोकेट भदोरिया परिवार की सीधी मांग: पहाड़ी क्षेत्रों के पुलिसकर्मियों को मिले गृह जनपद में तैनाती,, मुख्यमंत्री व पुलिस महानिदेशक को भेजा पत्र, पलायन पर कड़ा रुख अपनाने की अपील

इन्तजार रजा हरिद्वार- पहाड़ से पलायन नहीं, पुनर्वास चाहिए,,
एडवोकेट भदोरिया परिवार की सीधी मांग: पहाड़ी क्षेत्रों के पुलिसकर्मियों को मिले गृह जनपद में तैनाती,,
मुख्यमंत्री व पुलिस महानिदेशक को भेजा पत्र, पलायन पर कड़ा रुख अपनाने की अपील

✍🏻 इन्तज़ार रज़ा, हरिद्वार
Daily Live Uttarakhand विशेष रिपोर्ट


उत्तराखंड के संवेदनशील मुद्दे ‘पलायन’ को लेकर हरिद्वार के अधिवक्ता परिवार ने एक बार फिर राज्य शासन को आईना दिखाने का प्रयास किया है। वरिष्ठ अधिवक्ता अरुण भदोरिया, अधिवक्ता कमल भदोरिया और LLB छात्र चेतन भदोरिया ने एक पत्र प्रदेश के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और पुलिस महानिदेशक उत्तराखंड को भेजकर मांग की है कि पहाड़ क्षेत्रों के मूल निवासी पुलिसकर्मियों एवं अन्य सरकारी कर्मचारियों को उनके गृह जनपद में ही तैनाती दी जाए, ताकि पर्वतीय क्षेत्रों से हो रहे पलायन को रोका जा सके।

❖ पहाड़ में तैनाती की मांग क्यों जरूरी?

उत्तराखंड भौगोलिक रूप से एक चुनौतीपूर्ण प्रदेश है जिसमें 13 जिले शामिल हैं और उनमें से अधिकांश जिले पर्वतीय हैं। यहां की एक प्रमुख और पुरानी समस्या है – पलायन। जब किसी पहाड़ी क्षेत्र के युवा को पुलिस या अन्य सरकारी सेवा में नौकरी मिलती है, तो अक्सर उसकी पोस्टिंग मैदानी जिलों में हो जाती है। वहां वह मजबूरी में घर बनाता है, बच्चों को स्कूलों में भर्ती करता है और धीरे-धीरे अपने पूर्वजों के घर व गांव से नाता तोड़ने पर मजबूर हो जाता है

अरुण भदोरिया का कहना है कि –

“जब तक राज्य के पहाड़ी मूल के कर्मचारियों को उनके गृह जनपद में तैनाती नहीं मिलेगी, तब तक पलायन की समस्या जड़ों से खत्म नहीं की जा सकती। पहाड़ वीरान हो जाएंगे और गांवों में ताले लगते जाएंगे।”

❖ पहले भी उठी थी आवाज, मिला था आंशिक समाधान

अरुण भदोरिया ने इस मुद्दे पर पहले भी मुख्यमंत्री और पुलिस विभाग को पत्र भेजा था। उसके परिणामस्वरूप, पुलिस विभाग ने एक सर्वे कराया और फिर सात जनपदों में गृह जनपद में तैनाती (तहसील क्षेत्र को छोड़कर) के आदेश पारित किए। इसके तहत बड़ी संख्या में पुलिसकर्मियों को उनके गृह जिले में सेवा देने का मौका मिला।

इस आदेश का सकारात्मक असर साफ दिखा।

  • इन पुलिसकर्मियों ने अपने पुश्तैनी मकानों की मरम्मत करवाई।
  • कुछ ने नए मकान बनवाए।
  • गांव में रहकर न केवल ड्यूटी निभाई, बल्कि अपने बुजुर्ग माता-पिता की सेवा करने का अवसर भी मिला।

❖ नये ट्रांसफर आदेश से फिर खड़ा हुआ संकट

हाल ही में गढ़वाल और कुमाऊं मंडल के अधिकारियों द्वारा कई पुलिसकर्मियों का स्थानांतरण गृह जनपद से बाहर कर दिया गया है। इससे पहले से एक सकारात्मक दिशा में बढ़ रहे प्रयास को पलायन की ओर मोड़ने का खतरा पैदा हो गया है

कई पुलिसकर्मियों ने जो मकान गृह जनपद में बनवाए थे, वे अब बेकार हो गए हैं क्योंकि उन्हें अब फिर से किसी नए जिले में ड्यूटी करनी है।

  • कुछ को किराए पर घर लेना पड़ेगा।
  • कुछ को दोबारा नई जगह घर बनाने की विवशता होगी।

भदोरिया परिवार ने कहा कि –

“यह एक कर्मचारी नहीं, पूरी पीढ़ी को फिर से विस्थापन के संकट में धकेलना है। जो मकान पहले मजबूरी में बाहर बनवाए गए थे, उन्हें तो पहले ही बेच दिया गया था। अब फिर से नई जगह बसने का बोझ उठाना पड़ेगा।”

❖ योजनाएं सिर्फ कागजों पर, असल में हो रहा है ‘रिवर्स प्रोग्रेस’

राज्य सरकार और मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी लगातार ‘रिवर्स माइग्रेशन’ की बात करते रहे हैं, यानी लोगों को दोबारा पहाड़ लौटाना। लेकिन भदोरिया परिवार का कहना है कि यह नीति विभागीय अधिकारियों की उपेक्षा के चलते असफल हो रही है।

उन्होंने कहा कि –

“यदि अधिकारी पहाड़ों की जनसंख्या और मूल संरचना को समझते, तो वे कभी भी ऐसे ट्रांसफर आदेश पारित नहीं करते। इस निर्णय ने न सिर्फ पुलिसकर्मियों की सामाजिक स्थिति को झटका दिया है, बल्कि राज्य सरकार की पहाड़ को बसाने की नीति को भी कटघरे में खड़ा कर दिया है।”

❖ समाधान क्या है?

पत्र के माध्यम से जो प्रमुख मांगें रखी गई हैं, वे इस प्रकार हैं:

  1. गृह जनपद में तैनाती नीति को फिर से लागू किया जाए और नए स्थानांतरण आदेशों को निरस्त किया जाए।
  2. पुलिसकर्मियों की तैनाती में ‘स्थानीयता’ को प्राथमिकता दी जाए।
  3. प्रत्येक सरकारी विभाग में इस नीति को लागू किया जाए, ताकि अन्य कर्मचारी भी अपने गांव-घर से जुड़े रह सकें।
  4. मुख्यमंत्री कार्यालय और डीजीपी स्तर से एक स्थायी शासनादेश जारी किया जाए, जिसमें पहाड़ी क्षेत्रों के कर्मियों को उनके गृह जनपद में ही सेवा देने की व्यवस्था हो।

❖ सरकार को सुननी होगी यह ‘जमीनी आवाज’

यह मांग कोई राजनीतिक चाल नहीं, बल्कि जमीन से जुड़ी एक सामाजिक जरूरत है।
भदोरिया परिवार की यह पहल बताती है कि कुछ लोग अभी भी राज्य की सामाजिक बनावट, बुजुर्गों के सम्मान और गांवों के अस्तित्व की चिंता करते हैं।

यदि सरकार इस पत्र का संज्ञान लेकर त्वरित निर्णय नहीं लेती, तो यह ‘पहाड़ से शहर’ की ओर पलायन नहीं, बल्कि ‘संवेदनाओं से दूरियों’ का भी प्रतीक बन जाएगा।

एक ओर सरकार पहाड़ों को आबाद करने की योजना बना रही है, दूसरी ओर अधिकारी ऐसे निर्णय ले रहे हैं जो गांवों को उजाड़ने का कारण बन रहे हैं। भदोरिया परिवार की यह मांग न केवल कर्मचारियों के लिए राहत भरी है, बल्कि पूरे उत्तराखंड के लिए एक चेतावनी भी है कि यदि समय रहते नहीं चेते, तो पहाड़ों की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान खो सकती है।

Daily Live Uttarakhand इस सामाजिक चिंता का समर्थन करता है और राज्य सरकार से अपील करता है कि वह स्थायी, संवेदनशील और मानव-केंद्रित नीतियों को अपनाकर इस मुद्दे का समाधान करे।

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