खनन नीति पर उत्तराखंड में ‘नई राजनीति’ की पटकथा, हरिद्वार से विशेष विश्लेषण

इन्तजार रजा हरिद्वार-खनन नीति पर उत्तराखंड में ‘नई राजनीति’ की पटकथा, हरिद्वार से विशेष विश्लेषण
उत्तराखंड में खनन एक ऐसा विषय बन गया है, जिसने केवल आर्थिक संदर्भों को ही नहीं, बल्कि राज्य की राजनीति को भी एक नया मोड़ दिया है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में वर्तमान सरकार ने खनन क्षेत्र में जो नीतिगत बदलाव किए हैं, उनसे राज्य को न केवल आर्थिक लाभ हुआ है, बल्कि शासन की पारदर्शिता और प्रशासनिक इच्छाशक्ति का एक नया मॉडल भी स्थापित हुआ है। यही वजह है कि अब खनन को लेकर केवल विकास की चर्चा नहीं हो रही, बल्कि इसके इर्द-गिर्द एक नई राजनीति भी आकार ले रही है।
पूर्ववर्ती सरकारों की विरासत और अवैध खनन की चुनौती……जब त्रिवेंद्र सिंह रावत उत्तराखंड के मुख्यमंत्री थे, उस समय विशेषकर हरिद्वार जिले में अवैध खनन के अनेक मामले सामने आए। इस दौरान खनन से प्राप्त होने वाला राजस्व बेहद सीमित रहा, जो पूरे प्रदेश में लगभग ₹350 करोड़ के आसपास था। नदियों के किनारे अंधाधुंध खनन, स्टोन क्रेशरों की अवैध गतिविधियाँ और पर्यावरणीय मानकों की अनदेखी ने न केवल पारिस्थितिकी को क्षति पहुँचाई, बल्कि राज्य की राजस्व प्रणाली को भी नुकसान पहुँचाया।राज्य के विभिन्न जिलों—हरिद्वार, नैनीताल, ऊधमसिंहनगर आदि—में खनन माफिया के प्रभाव की खबरें आम थीं। इन गतिविधियों पर नकेल कसने के लिए न तो प्रशासन के पास पर्याप्त संसाधन थे, न ही राजनीतिक इच्छाशक्ति। यही कारण रहा कि खनन एक ऐसा मुद्दा बन गया, जिसे लेकर जनता में असंतोष लगातार बढ़ता गया।
धामी सरकार की ‘ज़ीरो टॉलरेंस’ नीति….पुष्कर सिंह धामी के मुख्यमंत्री बनने के बाद सरकार ने अवैध खनन के विरुद्ध ‘ज़ीरो टॉलरेंस’ की नीति अपनाई। इस नीति का मूल उद्देश्य केवल कानून व्यवस्था को लागू करना नहीं, बल्कि एक पारदर्शी, टिकाऊ और राजस्व-संपन्न खनन प्रणाली का निर्माण करना था। धामी सरकार ने खनन के लिए ई-नीलामी प्रणाली को लागू किया, जिससे खनन पट्टों के आवंटन में पारदर्शिता आई और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा। इससे न केवल खनन में भागीदारी बढ़ी, बल्कि प्रतिस्पर्धा भी विकसित हुई, जिससे सरकार को अधिक राजस्व प्राप्त हुआ। वर्ष 2024 तक खनन से प्राप्त राजस्व ₹1050 करोड़ तक पहुँच गया, जो अपने आप में ऐतिहासिक उपलब्धि है।
प्रशासनिक सक्रियता और पर्यावरणीय संतुलन….एक ओर जहाँ सरकार ने राजस्व वृद्धि पर ध्यान केंद्रित किया, वहीं दूसरी ओर खनन क्षेत्रों में पर्यावरणीय मानकों के पालन को भी सुनिश्चित किया गया। पर्यावरण विभाग, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और जिला प्रशासन को मिलकर कार्य करने के निर्देश दिए गए। खनन क्षेत्रों में स्थानीय शिकायतों पर त्वरित कार्रवाई सुनिश्चित करने के लिए विशेष नियंत्रण कक्ष बनाए गए। इसके अतिरिक्त, सरकार ने भौगोलिक स्थिति और पारिस्थितिकीय संवेदनशीलता के अनुसार खनन की योजना बनाकर प्रशासनिक सक्रियता को नया आयाम दिया।
बाणगंगा और विरोध की राजनीति…हाल ही में हरिद्वार के बाणगंगा क्षेत्र में खनन को लेकर सरकार पर सवाल उठाए जा रहे हैं। कुछ विपक्षी दल और सामाजिक संगठन इस क्षेत्र में खनन को लेकर सरकार की नीति पर आरोप लगा रहे हैं कि यह ‘पुनर्जीवन अभियान’ के नाम पर पर्यावरण के साथ खिलवाड़ है। हालाँकि, सरकार का दावा है कि बाणगंगा क्षेत्र में अधिकांश स्टोन क्रेशर की अनुमति पूर्ववर्ती सरकारों के कार्यकाल में दी गई थी। ऐसे में वर्तमान सरकार पर आरोप लगाने की बजाय यह प्रश्न पूर्व नीतियों की ओर उठना चाहिए।वास्तव में, बाणगंगा का मुद्दा केवल पर्यावरण या खनन का नहीं है; यह अब एक राजनीतिक प्रतीक बन गया है। यह स्पष्ट हो गया है कि जब सरकार पारदर्शिता और कानून व्यवस्था के माध्यम से राजस्व वृद्धि करती है, तब कुछ राजनीतिक वर्ग असहज महसूस करने लगते हैं।
क्या राजनीति कर रही है खनन से असहज?….उत्तराखंड की नई खनन नीति ने यह सिद्ध कर दिया है कि यदि राजनीतिक इच्छाशक्ति हो, तो किसी भी विवादास्पद क्षेत्र को विकास का साधन बनाया जा सकता है। लेकिन जब इस विकास की प्रक्रिया में पुरानी शक्तियाँ या विशेष हित समूह प्रभावित होते हैं, तो वे विभिन्न माध्यमों से असंतोष प्रकट करते हैं।
आज जब सरकार ई-नीलामी, पर्यावरणीय संतुलन और प्रशासनिक पारदर्शिता को लागू कर रही है, तब यह सवाल भी उठना स्वाभाविक है कि क्या कुछ लोगों को इस नई प्रणाली से असुविधा हो रही है? क्या बाणगंगा जैसे मुद्दे इसी असहजता का परिणाम हैं?
उत्तराखंड मॉडल: अन्य राज्यों के लिए प्रेरणा….उत्तराखंड में खनन को लेकर अपनाई गई नीति अब ‘उत्तराखंड मॉडल’ के रूप में उभर रही है। जहाँ अन्य राज्य खनन से राजस्व की चोरी, माफिया संस्कृति और पर्यावरणीय नुकसान की समस्या से जूझ रहे हैं, वहीं उत्तराखंड ने अपने सशक्त और पारदर्शी दृष्टिकोण से यह साबित किया है कि यह क्षेत्र भी सुशासन का प्रतीक बन सकता है। राजस्व की वृद्धि, अवैध खनन पर नियंत्रण, पर्यावरण संरक्षण और राजनीतिक पारदर्शिता—ये चारों स्तंभ उत्तराखंड की नई खनन नीति की सफलता की कुंजी हैं। यदि यह नीति इसी तरह आगे बढ़ती रही, तो न केवल राज्य को आर्थिक लाभ होगा, बल्कि देश के अन्य राज्यों के लिए यह एक आदर्श बन सकती है।
निष्कर्ष एक विवाद नहीं, विकास की दिशा में समायोजित ….उत्तराखंड में खनन अब केवल एक उद्योग नहीं रह गया है, यह प्रशासनिक सुधार, पारदर्शिता और राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रतीक बन चुका है। पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में जिस प्रकार राज्य ने खनन को राजस्व और विकास के स्रोत में परिवर्तित किया है, वह वास्तव में प्रशंसनीय है।
हालाँकि, विकास की हर कहानी के समानांतर कुछ विरोधी स्वर भी उठते हैं। यह लोकतंत्र का हिस्सा है, लेकिन यह आवश्यक है कि जनता तथ्यों के आधार पर निर्णय ले। अगर खनन नीति पारदर्शी है, पर्यावरण-संवेदनशील है और राजस्व में वृद्धि कर रही है, तो उसे विवाद का नहीं, विकास का माध्यम माना जाना चाहिए।