उत्तराखंड में औषधि नियंत्रण का नया विज़न, तकनीकी दक्षता, पारदर्शिता और व्यावसायिक प्रशिक्षण पर ज़ोर, नियामक प्रणाली को सशक्त करने के लिए डीसीजीआई और विशेषज्ञों की अहम भूमिका

इन्तजार रजा हरिद्वार- उत्तराखंड में औषधि नियंत्रण का नया विज़न,
तकनीकी दक्षता, पारदर्शिता और व्यावसायिक प्रशिक्षण पर ज़ोर,
नियामक प्रणाली को सशक्त करने के लिए डीसीजीआई और विशेषज्ञों की अहम भूमिका
उत्तराखंड में औषधि नियमन प्रणाली को अधिक पारदर्शी, परिणाममुखी और तकनीकी रूप से सक्षम बनाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण पहल सामने आई है। प्रदेश के औषधि नियंत्रण विभाग द्वारा हाल ही में आयोजित एक दिवसीय कार्यशाला में दवा निरीक्षण, नमूना विश्लेषण, लेबलिंग और जीएमपी (गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिस) जैसे विषयों पर विस्तार से चर्चा की गई। कार्यक्रम में विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों, विशेषज्ञों और प्रशिक्षकों ने भाग लिया और अधिकारियों को न केवल विधिक प्रावधानों की जानकारी दी, बल्कि उन्हें तकनीकी नवाचारों और व्यावहारिक प्रक्रियाओं से भी अवगत कराया।
नियामन के समक्ष चुनौतियाँ और डीसीजीआई की केंद्रीय भूमिका
कार्यशाला की शुरुआत दवा नियमन के समक्ष खड़ी मौजूदा चुनौतियों और डीसीजीआई (ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया) की भूमिका पर विचार-विमर्श से हुई। वक्ताओं ने कहा कि वर्तमान में दवा उद्योग अत्यंत गतिशील हो गया है, जहाँ नवाचार, फॉर्मूलेशन तकनीक और उत्पादन प्रणाली तेजी से बदल रही है। ऐसे में केवल कानून की किताबें पढ़ना पर्याप्त नहीं है, बल्कि अधिकारियों को तकनीकी मोर्चे पर भी पूरी तरह दक्ष होना अनिवार्य है।
कार्यक्रम में इस बात पर विशेष बल दिया गया कि डीसीजीआई की भूमिका केवल केंद्रीय अनुमोदन या नीतियाँ बनाने तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि उसे राज्य स्तर के निरीक्षकों और नियंत्रकों को तकनीकी प्रशिक्षण देने, अद्यतन नियमों से परिचित कराने और अनुसंधान एवं परीक्षण प्रक्रिया में सुधार लाने की दिशा में भी काम करना चाहिए।
एक वक्ता ने कहा –
“दवा नियंत्रण अधिकारियों को विधिक प्रावधानों के साथ-साथ तकनीकी नवाचारों से भी अपडेट रहना चाहिए, ताकि वे प्रभावी नियमन सुनिश्चित कर सकें।”
यह कथन न केवल कार्यशाला की दिशा को स्पष्ट करता है, बल्कि भविष्य में औषधि नियमन के लिए एक नई सोच का संकेत भी देता है।
जीएमपी, नमूना विश्लेषण और लेबलिंग पर प्रायोगिक जानकारी
पूर्व एफडीए नियंत्रक एन.के. आहूजा ने इस कार्यशाला में एक महत्वपूर्ण सत्र का संचालन करते हुए दवा निर्माण के लिए अनिवार्य जीएमपी मानकों, नमूनों की वैज्ञानिक जांच प्रक्रिया और लेबलिंग के नियामक पहलुओं पर गहन जानकारी दी। उन्होंने बताया कि अक्सर निरीक्षण के दौरान लेबलिंग की त्रुटियाँ सामने आती हैं, जो कि न केवल नियमों का उल्लंघन है, बल्कि आम जनता के लिए भ्रम की स्थिति भी पैदा करता है।
एन.के. आहूजा ने अपने व्याख्यान में व्यावहारिक उदाहरणों के माध्यम से अधिकारियों को यह बताया कि:
- किन संकेतों की जांच प्राथमिक स्तर पर की जानी चाहिए,
- नमूना लेते समय किन बातों का विशेष ध्यान रखा जाए,
- लेबलिंग में निर्धारित सूचनाएँ किन प्रारूपों में अनिवार्य हैं,
- और यह सब प्रक्रिया जीएमपी के मानकों से कैसे जुड़ी होती है।
उन्होंने यह भी बताया कि जांच अधिकारी यदि तकनीकी दृष्टि से प्रशिक्षित हों, तो वे केवल उल्लंघन ही नहीं पहचान सकते, बल्कि दवा निर्माता को भी सही दिशा में मार्गदर्शन कर सकते हैं। यह सहभागिता औद्योगिक वातावरण में भी सुधार लाती है।
“उत्तराखंड में औषधि नियंत्रण को बनाएंगे परिणाममुखी और पारदर्शी” – ताजबर सिंह जग्गी
कार्यशाला में उत्तराखंड के अपर आयुक्त (खाद्य एवं औषधि) ताजबर सिंह जग्गी ने कहा कि राज्य सरकार औषधि नियंत्रण प्रणाली को पारदर्शी और उत्तरदायी बनाने के लिए निरंतर कार्य कर रही है। उनका कहना था कि तकनीक, प्रशिक्षण और उद्योग से समन्वय—ये तीनों औषधि नियंत्रण के स्तंभ हैं, जिन्हें सशक्त बनाए बिना गुणवत्तायुक्त चिकित्सा व्यवस्था की कल्पना अधूरी है।
उन्होंने कहा –
“हमारा प्रयास है कि उत्तराखंड में औषधि नियंत्रण व्यवस्था को और अधिक पारदर्शी, उत्तरदायी और तकनीकी रूप से सक्षम बनाया जाए। इस दिशा में विभाग, उद्योग और विशेषज्ञों के बीच निरंतर संवाद और सहयोग अत्यंत आवश्यक है।”
ताजबर सिंह जग्गी ने यह भी बताया कि आने वाले समय में विभाग और अधिक आधुनिक उपकरणों, सॉफ्टवेयर और प्रशिक्षण मॉड्यूल्स के साथ निरीक्षण और विश्लेषण प्रक्रिया को अपग्रेड करेगा।
कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ औषधि निरीक्षक नीरज कुमार द्वारा किया गया, जिन्होंने अतिथियों का स्वागत करते हुए कार्यशाला की रूपरेखा प्रस्तुत की और अंत में धन्यवाद ज्ञापन के साथ समापन की घोषणा की।
यह कार्यशाला न केवल औषधि नियंत्रण अधिकारियों के लिए एक तकनीकी पाठशाला रही, बल्कि राज्य की नियामक नीतियों के पुनर्मूल्यांकन और सशक्तिकरण का भी प्रतीक बनी। डीसीजीआई और राज्य स्तरीय प्रशासन यदि इसी तरह सहयोग और संवाद की नीति अपनाते हैं, तो उत्तराखंड ही नहीं, पूरे देश में औषधि नियंत्रण प्रणाली को एक नई दिशा मिल सकती है। तकनीकी नवाचारों, व्यावसायिक प्रशिक्षण और पारदर्शी दृष्टिकोण के साथ यह क्षेत्र स्वास्थ्य सेवाओं की रीढ़ बन सकता है।